वर्तमान समय का पारिवारिक दृश्य""
""वर्तमान समय का पारिवारिक दृश्य""
""छंद""
सच कहूं श्रीमान ऐसी अब बयार चली,
माता-पिता हमको बोझ जैसे लगते हैं।
भाई से भी दूर हैं हम बहनों से दूर ही हैं,
बीबी बच्चे साथ रख छोड़ घर को चलते हैं।
कभी गर मौका आया एक साथ होने का तो,
बच्चों की पढ़ाई का हम जिक्र किया करते हैं।
नही चाहते हम साथ अब घर के बुजुर्गों का,
ऐसे ही माहौल को परिवार कहा करते हैं।
सभ्यता अपनी और संस्कृति भूले हम,
संस्कार होते क्या उसे भूल बैठे हैं।
चाचा-चाची,मामा-मामी रिस्तों में फर्क नहीं,
एक शब्द अंकल और आंटी रटे बैठे हैं।
माना कि अंग्रेजी भाषा बहुत है महत्वपूर्ण,
पर हिंदी का क्या हम मान भूल बैठे हैं।
हिंदी ही कराती एहसास हमें रिश्तों का,
अंग्रेज बन सारे अब हम रिश्ते भूल बैठे हैं।
बच्चों को बतलाते हम आए तेरे अंकल-आंटी,
बेटा नही जानता बुआ जी फुफा कौन हैं।
आए मेहमान जैसे चाय पिए चले गए,
बच्चों ने न जाना कौन थे ए क्यों आए हैं।
लगे रहे वाट्सअप, फेसबुक, ट्विटर में,
ऐसा लगा रिश्ते सारे नेट में समाए हैं।
परिवार छोड़ सब अपनों से दूर हैं अब,
रिश्तों में गांठ ऐसी सभी ने लगाएं हैं।
दृश्य यह देख-देख बेटा जब जवान हुआ,
बाप की फटकार और दुलार भूल जाता है।
मां से नही ममता कोई हालत अब ऐसी हुई,
गांव से इतनी वो दूर चला जाता है।
पुत्र धर्म क्या होता निभाता बड़े शान से है,
रिश्ते को कलंकित कर वृद्धाश्रम छोड़ आता है।
महेश प्रसाद मिश्रा
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