पाँच प्रेम कविता



       1
  क्या देखतें हो...
क्यों क्या देखते हो
ऐसे आँखे खोलके
ऐसें ना देखो मुझें
बोलों ना क्या हैं मुझमें
         चूप क्यों हों कहो ना...कब तक देखोगे
          मुझें ऐसे...ना देखों
          मेरे दिल का दरवाजा
          खुल जाएगा...
फिर तेरा निकलना मुश्किल हो जाएगा
तो मेरे दिल में तू
सफर का अप्साना
बनकर रह जाएगा
अब तो नजर हटाओ ना...
नजर से मेरे...
        मैं देखना नही चाहती
        तुम्हारी आँखों को
        पर क्या करूँ तुम्हें देखें बिना
        आँखें नही रह पाती
         पूछो ना...अब मुझे
         क्यों बार-बार देख
          रही हूँ मैं तुम्हें
  
    2  क्या समझू मैं
क्या समझूँ मैं तेरे मौन को
क्यों चेहरे की हँसी चली गई
मुझे देख तू क्यों उदास हो गई
क्या समझूँ मैं तेरे इस उदासी को
          मेरे मन की बेचैनी बढ़ रही हैं
          दिल की धड़कने तेज हो रही हैं
          क्यों नही देख सकती तू इस धड़कनों को
            क्या समझूँ मैं तेरे बन्द आँखों को
बोलते नही तेरे...
यह खामोश ओठ
फिर भी सुनाते हैं आँखे
क्या समझूँ मैं तेरे
आँखों को...
         बोलो खामोश क्यों हो
          क्या हो गया मिझे भी समझाओ
          ता कि मैं समझ सकूँ
          तेरे इस बेचैनी को
           कहे भी दो, क्या समझूँ मैं
            तेरे इस बंद ओठो को
  
   3 क्या तुम जानती हो...
क्या तुम जानती हो
कहि धूप हैं तो कही छाँव
हे कोई तुम्हारे लिए बेकरार
मैं जानता हूँ तुम्हारी बेचैनी
समझता हूँ तुम्हारी देहबोली
क्या मेरी तरहाँ तुम समझ सकती हो
बोलो ना क्या तुम जानती हो
   
    4 भावनाओ से एक
हे तन से दूरियाँ भावनाओं से एक
हे भले ही हम मौन में मगर
भावनाओं से जुड़े हुए है एक
        राह की बंदनो में बंदे है हम
        दुसरो के खातिर दिल की
        खुशियों को दबाके रखने वाले है हम
         अन देखा करके भी भावनाओं में देखते है हम
कितनी अजीब दास्ता है
देखने मे तो दूरियाँ है
होती भी नही,अब बात भी
यह कॉल भी लगता नही है
फिर भी भावनाओ का मेल
मिला हुआँ है कहि पर
तू याद करती हैं मुझे
मैं भी याद करता हूँ तुझे
यह भावनाएं बताती है मुझे
  
5 सौदर्य तेरा
सुबह की सूरज की किरणें
   तेरे गालो पर आके
      गोरे रंग को सताती है
          तो तू और भी सुंदर नजर आती है
कोहरा झील-मिलसा चारों ओर है
      उस की बूंदों में खड़ी तू
          पैरों तले हरियाली हँस पड़ी है
             उपर तू खड़ी है इसलिए वह भी डोलती है
उपर से खग  जाते तेरे
    तेरे चोटी का गुलाब देख
        वह भी कुछ पल रुक जाते
             तेरे सौदर्य को वह भी अपना ना चाहते
तू शबनम में हाथ फैलाए
     मुस्कान भरी उपर देख
          मस्ती में खग बन ना चाहती तू
                   हवा भी तेरे सौदर्य की सुंगध लेके
                       मेरे कानों में आके सताती है
                            तो तुझे देख मैं भी हवा बनकर
                                  तेरे सौदर्य में मिल जाऊँ
                                      चाहकर भी तुझसे दूर न जाऊँ
                                   मैं भी तेरा हाथ थामकर झूमने लगूँ
    
                  कवि मारोती गंगासागरे
                         नांदेड़ महाराष्ट्र
                         8411895350
       

       

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