आवाज दिल की ....
रिम-झिम बारिशों में थंडी हवा चलने लगी
अँधेरी रात में प्रियसी की याद सताने लगें
यूँ शितल से मौहल में रोम-रोम विरह में जलने लगे
ना पानी से यह आग बुझे लाखो कोशिशें करके
थक गए सारे ...
जितनी गहरी रात होती उतनी ही
इस आग की ज्वाला भड़की
यह काम देव भी मेरा दुश्मन बन गया
इस स्तिथि में , दिन में तो हल्का-फुल्का
रहता हाल...
अब तो नींद नही ना ही कोई भोजन
मिलना है उसे यही सोचकर जागे रात भर
न जाने कितनी राते ऐसी खुली आँखों से देखी
और न जाने क्या-क्या होता हाल मेरा
मिलन की चाह में....
उसकी राह में गुबारे से गाल चुपक गए
रंग था गोरा अब तो सावला हो गया
बराबर आने वाली कुड़ती भी अब बड़ी होने लगी हैं
बिना प्रयास किए भी एक महीने में बहुत सारा
वजन खुद का घटा गए है....
अब तो सावन भी जाने को आया
पर तु नही आयी न जाने तेरे चाह में
कितने सावन आएंगे- जाएंगे मेरी चाह
कभी नही होगी कम विश्वास है मुझमे
तू आएगी एक दिन जरूर...
कवि मारोती गंगासागरे
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