स्त्री-पुरूष समता (जेंडर इक्वॅलिटी- लैंगिक समानता) आखीर कहें किसे?
स्त्री-पुरूष समता (जेंडर इक्वॅलिटी- लैंगिक समानता) आखीर कहें किसे?
भारतीय संविधान, कलम १४,१५ के तहत भारतवासियों को समता का अधिकार देता है। और इसके तहत "धर्म, वंश,जात,लिंग और प्रांत के आधार पर सरकार या किसी भी व्यक्ती के द्वारा देशवासियों के साथ कोई भी गैर सलूक (भेदभाव) नहीं किया जा सकता। या इस तरह के असमानता पूर्ण रवैये को संवैधानिक तौर पर अनुमती नहीं देता।
कलम १५-(१) और (२) के तहत धर्म, वंश, जात, लिंग और प्रांत इनमें से किसी भी एक या अनेक कारणवश, कहीं भी चाहे वह सार्वजनिक स्थल (दुकान, हाॅटेल, बाग, रस्ते, तालाब, कुआॅ इत्यादी) हो, या किसी की स्वयं की खरिदी हुई व्यक्तिगत जगह पर आना, जाना, इस्तेमाल करने पर प्रतिबंध नहीं किया जा सकता। और यही आर्टिकल १५(३)महिला और बालकोंके हित के लिए विशेष कानुनी व्यवस्था करने का हर राज्य को विशेषाधिकार भी प्रदान करती है। चाहे वह शिक्षा हो, नोकरी हो, या विशेष कानुनी संरक्षण हो।
जेंडर इक्वलिटी ,लैंगिक समता जिसे हम स्त्री-पुरुष समानता भी कहते है, यह हमे दो स्तर पर देखने को मिलती है। एक संवैधानिक स्तर पर और दुसरी सामाजिक स्तर पर।
और इसके साथ साथ, हमे स्त्री पुरूष समानता को लेकर, सामाजिक विषमता और पारिवारिक विषमता भी देखने को मिलती है।
हम जब सामाजिक स्तर पर, जेंडर इक्वॅलिटी की बात करते है, तब हमे यह समझना आवश्यक हो जाता है कि, हमारे देश में, मतलब भारतीय समाज व्यवस्था में जेंडर इक्वॅलिटी दो स्तर पर क्रियान्वीत होती है। (१) संवैधानिक स्तर पर (२) सामाजिक मानसिक स्तर पर।
संविधान आर्टिकल हमें14, 15 में हर तरह की इक्वॅलिटी देता है। पर समाज हमे कहाॅ कहाॅ पर है स्त्री-पुरुष समता प्रदान करता है या नही करता है। इस बात पर गौर करना भी उतना ही आवश्यक होता है।
कई युगो पहले की पुरातन कथाओंमेसे हमें जानने को मिलता है, कि भारतवर्ष में पहले महिलाओं को शिक्षा का अधिकार प्राप्त था। वह युध्दनिती का भी ग्यान रखती थी , राजकिय कामकाज में भी हिस्सा लेती थी, और वक्त आने पर प्रजापर शासन भी करती थी। साथ ही स्वयंवर के जरिए अपने जीवनसाथी का चुनाव करने का भी अधिकार रखती थी। किंतू बाद में मनुस्मृति में जो मनु द्वारा नारी का सामाजिक और पारिवारिक स्थान तय किया गया, उससे तो उसे समाज और परिवार में, दास की दासी ही करार देते हुये, अनेक सीमाओं में उसके जीवन को बांधा गया। एक तरह से उसे सिर्फ चूल्हा चौका और बच्चों तक ही सीमित कर दिया गया। और आगे चलकर, उसकी इसी सीमा को उसकी पारिवारिक जिम्मेदारियां, नारी के कर्तव्य बना कर, वर्षों से उसको वैसे ही संस्कारीत किया जाने लगा। जो आज भी उसके पैरों में परंपरागत संस्कार और गृहस्थ जीवन की जिम्मेदारियां, और नारी कर्तव्य की जंजीर बनकर बंधी है।
युग बिता, जो स्त्री पहले शिक्षा लेने का अधिकार नहीं रखती थी, बदलते युग में भारतीय महिला समाज सुधारक जिनमें सर्वप्रथम फुले परिवार,राजा राममोहन राय, और डॉक्टर बाबासाहेब अंबेडकर जी का नाम सबसे आगे आता है, उनके प्रयास से सामाजिक विकास और नारी विकास होता गया। उसे शिक्षा का, मतदान का, पिता और पति की संपत्ति में समानता का अधिकार, तथा रोजगार में, राजनीति में, समान मौका मिलने का अधिकार प्राप्त हुआ।
इस सबसे हम संवैधानिक स्तर पर जेंडर इक्वलिटी मतलब लैगिक समता, याने कि स्त्री पुरुष समानता स्थापित हो चुकी है, यह आंख मूंदकर कह सकते हैं। किंतु क्या इतने ही विश्वास से आंख मूंदकर हम सामाजिक स्तर पर जेंडर इक्वलिटी प्रस्थापित हो चुकी है, यह दावे के साथ कह सकते हैं?
यकीनन यह काफी गंभीर सवाल है, और काफी सोचनिय बात भी है।
आखिर हम जेंडर इक्वलिटी कहे किसे? सामाजिक स्तरपर पुरुषों के लिए निर्धारित पोशाक, स्त्री को पहनने का अधिकार मिलता है, तो क्या हम इसे सामाजिक स्तर पर जेंडर इक्वलिटी समझ सकते हैं? या समाज के हर क्षेत्र में सामाजिक और पारिवारिक स्तर पर स्त्री और पुरुष दोनों को बौद्धिक स्तर पर एक समान ही समझना। पुरुष की बौद्धिक क्षमता के समान ही स्त्री की बौद्धिक क्षमता का सम्मान करना, समानता का स्थान देने को जेंडर इक्वलिटी कहें?
बदलते वक्त के साथ जेंडर इक्वलिटी की संकल्पना भी बदलती हुई नजर आती है।
जब स्त्रीयों को शिक्षा का अधिकार नही था, तब वह मिलना याने स्त्री-पुरूष समानता का एक हिस्सा था। जब बाल विधवा स्त्रीयोंको पुर्नविवाह का अधिकार नहीं था, तब वह अधिकार मिलना मतलब स्त्री पुरूष समानता का ही भाग था। जब महिला को मतदान का अधिकार नहीं था,तब उन्हें वह अधिकार प्राप्त होना, जेन्डर इक्वॅलिटी का ही हिस्सा था। रोजगार और राजनिती में भी महिला को स्थान प्राप्त होना जेन्डर इक्वॅलिटी का ही एक भाग है।
यह सब अधिकार महिला को काफी झगडे और संघर्ष के बाद मिले। और संविधान ने उसे सुरक्षीतता भी प्रदान की।
घुम फिरकर हम फिर वही आ खड़े होते हैं, वह यह कि सामाजिक और पारिवारिक स्तर पर क्या वाकई स्त्री पुरूष समता हमें दिखाई देती है? या इसके विपरीत दॄष्य दिखता है, जिसे हम सामाजिक और पारिवारिक विषमता बोल सकते हैं।
जेंडर इक्वलिटी को लेकर समाज के वास्तविक चित्रण की ओर मुड़ते हैं तो
हमें दो स्तर पर इसका निरीक्षण करना होता है। सामाजिक और पारिवारिक ।
सामाजिक स्तर पर बहुत सी जगह पर पुरूषों के लिए अलग रितीरिवाज और स्त्रीयों के लिए कुछ विशेष नियम लागू पड़ते हुए दिखते हैं।
हमारे भारत देश में पुरूषोंके एक से ज्यादा प्रेम या यौन संबंध उसके पौरूषी बल का प्रतिक समझ कर, उसे उसके चरित्र से नहीं जोड़ा जाता। तो वहीं स्त्री के प्रेम संबंध और एक से ज्यादा यौन संबंधों को उसके चरित्रता से जोड़ कर, उसे चरित्र हिन करार दिया जाता है।
साथ ही उसके चरीत्र को घर, परिवार, समाज के इज्जत की धरोहर समझा जाता है। यैसे हालात को हम स्त्री-पुरूष समता तो नहीं, पर विषम सामाजिक विचारशैली कह सकते हैं।
इसी समाज में अगर रात के वक्त किसी भी काम से या युंही टहलने के लिए पुरूष घर के बाहर निकलता है, तो इसे सामान्य बात समझी जाती है। साथ ही वह ना खुद को असुरक्षित महसुस करता है, और ना ही वह पुरूष हैं इस वजह से उसका बाहर निकलना असुरक्षित या असंदिग्ध समझा जाता है। किंतू यह हालात स्त्री के साथ नहीं होते। रात के अंधेरे में उसका बाहर निकलना, या उसे बिच राह में देखना, सबकी आॅखे चुंधिया देता है। और वह भी स्वयं को सजग मेहसूस नहीं करती। उसके सर पर डर का भूत सवार होता है। हर कोई अपनी अपनी नज़र से उसे जज करने लगता है। कोई उसे बिगडी हुई, कोई उसके परिवारने अधिक छुट दी रखी है, यह सोचता है, तो कोई उसे धंधे पर निकली समझता है, तो कोई उसे बेवकुफ कह लेता है। हरेक जन अपने अपने विचार से उसे जज कर लेता है। एक ही परिस्थिती में औरत और मर्द को दो तरह से नापा आंका जाता है। जाहिर सी बात है, यह सामाजिक स्त्री-पुरूष विषम विचारशैली का ही परिणाम है।
ऐसे कई उदाहरण हैं, जो क्या वाकई समाज ने स्त्री-पुरूष समता का स्विकार किया है? यह सोचने पर मजबूर करते हैं।
यह सामाजिक स्त्री-पुरूष विषमता को दर्शाने वाली एक छोटिसी झलक है। किंतू हमारे पारिवारिक स्तर पर तो स्त्री-पुरूष विषमता की इतनी गहरी खाई दिखती है, जिसे बुझाने के लिए न जाने कितनी पिढीया गुजर जायेगी।
स्त्री-पुरुष विषमता का पहला सामना और पल पल का सामना सबसे अधिक हमारे घरों से ही होता।
घर के काम काज के साथ साथ, खान पान, रहने सहन, बैठना उठना, हर पल हमे इसका सामना करना पड़ता है।
एक परिवार में यदी बेटा और बेटी दो संतान है, तो ज़माने के साथ साथ दोनों को स्कुल में भेजने की जिम्मेदारी माॅ बाप तो खुशी से स्विकार कर लेते हैं, किंतू घर लौटने पर, पुत्र को या तो टिव्ही के सामने, या पढ़ाई में, या दोस्ते के साथ अपनी दुनीया में खो ने पुरी आजादी परिवार देता है, तो वहीं पर बेटी को, भविष्य में औरत होने के ताने सुनाकर उसे घर के कामों में घसीटा जाता है।
यदी एक घर में बेटा और बेटी है, और घर में दो काम है जिसे उनमें बांटना है, एक को बर्तन मांजने है, दुसरे को मार्केट से गोश लाना है, तो परंपरागत घर के बर्तन मांजने का कार्य औरत का समझा जाता है, तो वहीं बाहर गोश की दुकान में जाने का कार्य पुरूष का समझा जाता है। तो घर में बेटे से कोई बर्तन मंजवाकर बेटी को गोश की दुकान में भेजने का हौसला नहीं करेगा।
क्यों की, लैंगिक विषमतावादी मानसिकता इसकी अनुमती नहीं देती।
और इसी लैंगिक विषमता वाद से शुरू होता है स्त्री का शारीरिक और मानसिक शोषण।
लैंगिक विषमता के तहत समाज तो औरतों पर कई निर्बंध लाता ही है, किंतू इसके साथ साथ उसका शारीरिक और मानसिक स्तर पर काफी अधिक शोषण भी होता है, और वह भी उसके अपने परिवार में।
आज आधुनिक समाज में पति-पत्नी का अर्थाजन के लिए घर से बाहर निकलना आम बात है। समाज ने पैसे कमाने के लिए पुरूष की तरह औरत का बाहर निकलना स्विकार तो किया, किंतू उसी तरह पुरूष का घर के कामों में साझेदारी स्विकार नहीं की।
यदी आज भी कोई पुरूष, किसी कारण वश "घर में उसने आज खाना पकाया है," यह कहता है, तो सबसे पहले आगे से सवाल आता है, क्यों भाभीजी घर पर नहीं?
मतलब घरपर खाना पकाने से लेकर, बर्तन, झाड़ू पोंछा, कपड़े, बच्चे संभालना यह सिर्फ औरत के ही कर्तव्य समझे जाते है।
चाहे पति-पत्नी दोनों एकसाथ बाहर से कमाकर लौटे हो, घर पर आने के बाद सिर्फ और सिर्फ औरत को ही खाना पकाना है। क्यों की भारतीय समाज व्यवस्था और पारिवारिक व्यवस्था यहीं कहती हैं।
पारिवारिक संस्था में महिला को मारपिट करना, यह भी लैंगिक विषम मानसिकता का ही एक भाग है। जो समाज में, औरत मार खाने के लिए, पति को यौन सुख देने के लिए, बच्चे पैदा करने के लिए, परिवार के सदस्यों की सेवा करने के लिए, चुलाचौका करने के लिए ही पैदा हुई है, इस विचारधारा को अलिखीत तौर पर समाज और परिवार के मन में पिरोता है।
और साथ ही साथ, स्त्री-पुरूष समता (जेंडर इक्वॅलिटी- लैंगिक समानता) आखीर कहें किसे? यह सवाल भी पैदा करता है।
©® अस्मिता प्रशांत "पुष्पांजलि"
भंडारा, महाराष्ट्र, 9921096867
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