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नवंबर, 2022 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

कैसे हम सच्चाई को जान पाएँगे

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कैसे हम सच्चाई को जान पाएँगे जब गजनवी के दरबार से सोमनाथ का आकलन और खिलजी के दरबार से  पद्मावती का आकलन, बख्तियार के दरबार से  नालंदा का आकलन तथा गोरी के दरबार से  पृथ्वीराज का आकलन पढ़ेंगे तो - कैसे हम सच्चाई को जान पाएँगे! जब बाबर के दरबार से  राणा साँगा का मूल्यांकन और हुमायूँ के दरबार से  सती कर्णावती का मूल्यांकन, तथा अकबर के दरबार से  महाराणा प्रताप एवं रानी दुर्गावती का मूल्यांकन करेंगे तो - कैसे हम सच्चाई को जान पाएँगे! जब जहाँगीर के दरबार से शक्ति व अमर का चित्रण शाहजहाँ के दरबार से  ताजमहल का चित्रण तथा औरंगजेब के दरबार से  शिवाजी व गुरुगोविंद सिंह का चित्रण देखेंगे तो - कैसे हम सच्चाई को जान पाएँगे! जब सिंधिया के दरबार से  मर्दानी लक्ष्मीबाई का निरूपण, अंग्रेजों के दरबार से  क्रांतिकारियों का निरूपण वामियों के दरबार से  सनातन का निरूपण तथा पूँजीपतियों के दरबार से  श्रमिकों का निरूपण वरेंगे तो - कैसे हम सच्चाई को जान पाएँगे! जब कांग्रेस के दरबार से  राष्ट्रीय स्वयं सेवक का चिंतन ब्रिटिश के दरबार से नेताजी सुभाष का...

हमे अपने बच्चे ख़ुद सम्हालनें होंगे

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हमे अपने बच्चे ख़ुद सम्हालनें होंगे --डॉ अवध एवं डॉ प्रतिभा हम किसी पर अपनी मामूली सम्पत्ति तक नहीं छोड़ते और अनमोल बच्चे छोड़ देते हैं। है न आश्चर्यजनक! लेकिन सच यही है और इसका दुष्परिणाम भी हमारे समक्ष है। आज के कलयुगी दौर में सभी कुछ इतना मिलावटी, पाखंडयुक्त व खोखला है कि किसी पर आसानी से विश्वास करना संभव नहीं रहा है। समाज आज पाखंडी, मज़हबी जालसाज़ों, अंधे क़ानून के रक्षकों जो सिर्फ़ नाम के रक्षक मन के भक्षक हैं, और दो मुखौटे वाले लोगों से घिरा है। समाज में झूठे, जालसाज़ लोग जो अपने मक़सद को पूरा करने के लिये किसी भी स्तर तक गिर जाते हैं। भोले भाले बच्चों को, युवा लड़कियों को अपने जाल में आसानी से फँसा कर शिकार बनाने वाले कुकुरमुत्ते से फैल गए हैं। इसका अर्थ यह नहीं की समाज सिर्फ़ इन नकारात्मक हैवानों से ही घिरा है। अच्छे सकारात्मक मददगार लोग भी हैं किंतु उनका प्रतिशत बहुत कम है। आजकल लोग दूसरों के मामले में पड़कर ख़ुद फँसना भी नहीं चाहते। आज का समाज जिस अंध-आधुनिकरण के मार्ग पर चल पड़ा है उससे हमारे बच्चे सबसे ज़्यादा प्रभावित हैं। जिस तरह की फ़िल्मे और सिरीज़ चल पड़ी हैं उसमें कोई ...

ऊँची दुकान-फीका पकवान

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ऊँची दुकान-फीका पकवान --डॉ अवधेश कुमार अवध दुकान और पकवान दोनों मानव से जुड़ी अति प्राचीन काल से सतत चलने वाली आवश्यकताएँ हैं। दुकान पर माँग - पूर्ति द्वारा कई तरह के पकवान खरीदे जा सकते हैं। पकवान द्वारा उदरभरण के साथ-साथ रसना भी तृप्ति के कई सोपान तय करती है। प्रायः यही धारणा बलवती पायी जाती है कि ऊँची दुकान हो तो चोखा पकवान मिलना चाहिए। हल्की-फुल्की दुकान हो तो फीका पकवान की अपेक्षा रहती है। जब कभी ऊँची दुकान पर फीका पकवान मिलने लगे तो यह मुहावरा आप ही आप मुँह के कैद से दबे पाँव बाहर आ जाता है। लोगबाग कह ही देते हैं, "ऊँची दुकान- फीका पकवान"।  परितः पर्यावरणीय पतन के साथ-साथ साहित्यिक प्रदूषण भी चरमोत्कर्ष पर है। इस संक्रामक बीमारी से कवि सम्मेलन भी बचे नहीं हैं। कविताओं के अभाव से काव्य -मंच जूझ रहे हैं। कवि सम्मेलन में बहुत कुछ है, सब कुछ हो सकता है पर कविता नहीं है। कवि भी नहीं हैं। काव्य-प्रेमी भी नहीं हैं।  लोगों को मनोरंजन चाहिए इसलिए कवि सम्मेलन की ओर खिंचे चले आते हैं। यहाँ मंच पर भाँति-भाँति के विदूषक इंतजार कर रहे होते हैं। दर्शक ताली बजाने को तैयार नहीं और तथाकथि...

साहित्य का रुख समाचार की ओर होना अनुचित -

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साहित्य का रुख समाचार की ओर होना अनुचित -  डॉ अवधेश कुमार अवध यह निर्विवाद सिद्ध है कि साहित्य समाज का दर्पण है किन्तु इससे भी इंकार नही किया जा सकता कि साहित्य समाज का पथ प्रेरक भी है। दोनों का दोनों पर असर है। इक्कीसवीं सदी की सूचना क्रांति ने इस सम्बंध को और भी प्रगाढ़ एवं त्वरित प्रभावकारी बनाया है। क्षण मात्र में साहित्य का प्रकीर्णन समाज में हो जाता है और समाज की आकांक्षायें व सूचनायें साहित्य में सम्मिलित हो जाती हैं। हिंदी साहित्य का प्रारम्भिक दौर काव्य का था जिसमें कवि राजदरबारी होते थे और कविताओं का विषय आश्रयदाता राजाओं को महानायक बनाना होता था। चंदबरदाई और जगनिक जैसे कवि सुविख्यात थे। आम जनता और उसका दु:ख दर्द काव्य से बेहद दूर था। फिर समय बदला और काव्य का नायकत्व आश्रयदाता राजाओं की जगह परमसत्ता ने लिया। राम, कृष्ण, ब्रह्म और भगवान आदि महानायक बने। भक्त और भगवान के मध्य विविध रिश्ते तय किये गए किन्तु जनता और जन समस्या से काव्य का सरोकार बहुत कम बन सका। कबीर, जायसी, सूर व तुलसी भक्ति काल के शीर्ष थे। कालान्तर में बदलाव के साथ काव्य का झुकाव श्रृंगार व रीति की ओर हुआ। पु...

‘इनसे हैं हम’ किताब की समीक्षा : महान पूर्वजों की महागाथा

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‘इनसे हैं हम’ : महान पूर्वजों की महागाथा पुस्तक-इनसे हैं हम  संपादक-डॉ अवधेश कुमार अवध समीक्षक- डॉ वीरेन्द्र परमार   प्रकाशक-श्याम प्रकाशन, जयपुर  पृष्ठ-180  मूल्य-180/- वर्ष-2022 भारत भूमि का एक टुकड़ा मात्र नहीं है, बल्कि यह हजारों वर्षों की ज्ञान परंपरा है, वसुधैव कुटुम्बकम का उद्घोष है, ऋग्वेद की ऋचा है, गौतम बुद्ध का शांति संदेश है, भगवान श्रीकृष्ण की गीता का निष्काम कर्मयोग है, गुरु नानक की वाणी है, सरस्वती की वीणा है और भगवान शंकर का डमरू है I ज्ञान की समृद्ध परंपरा का नाम भारत है I ज्ञान के कारण ही इसे विश्वगुरु की संज्ञा दी गई है I ‘तमसो मा ज्योतिर्गमय’ अंधकार से प्रकाश, अज्ञान से ज्ञान और असत्य से सत्य की ओर बढ़ने का अमर संदेश देता है I वेद में कहा गया है कि ज्ञान ही मुक्ति का मार्ग प्रशस्त करता है I भारत को विश्व गुरु के रूप में प्रतिस्थापित करने में हमारे पूर्वजों का अप्रतिम योगदान है I भारत के स्वतंत्रता संग्राम में असंख्य वीरों ने आत्मोत्सर्ग किया जिनमें से कुछ के नाम ही हम जानते हैं I अनेक स्वतंत्रता सेनानी गुमनाम रह गए I हमें अपने उन पूर्वजों के अव...